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"ब्रज समुद्र मथुरा कमल वृन्दावन मकरंद
ब्रज वनिता सब पुष्प है मधुकर गोकुलचंद्र"

ब्रज के रसिक भक्तों ने ब्रज को समुद्र की उपमा दी है। उपमन-उपमेय की तुल्यता से ब्रज और समुद्र एक समान हैं। अगर ब्रज को समझ लिया, मतलब भव सागर को समझ लिया। ब्रज शब्द ब्रज गतौ - गति शब्द में ब्रज है तथा संसृति इति संसार - जिसमे संसारन (अर्थात, गति की निरंतर) हो उसे संसार कहते हैं।

इस प्रकार गति अर्थ में संसार तथा ब्रज समान अर्थ है। संसार-भावसागर-ब्रज सब एक हैं, इसलिए यदि ब्रज को समझ लिया जाए, तो संसार के सार को हल करने में देर नहीं लगेगी।

और ब्रज का सार हैं - श्री राधे कृष्ण!!

आइए समझते हैं ब्रजभूमि की विशेषता:
यह ब्रजमंडल की चौरासी (८४) कोस भूमि इस भूमण्डल से इतर है एवं इस सारी पृथ्वी का आधार है। कैसे?

जब हिरण्याक्ष के द्वारा सारी धरा का स्वर्ण अधिग्रहित किया गया, तब भूमंडल की स्थिति इस प्रकार हो गई जैसे पंक का सरोवर हो, और वह पंक इतना प्रदुषित हो गया की देवलोक भी उसकी गंध से विचलित होने लगा।

उस समय सब इंद्रादिक देवगण सागर में स्थित शेषशायी भगवान महाविष्णु के समक्ष इस कष्ट के निवारण हेतु प्रार्थना करने गए। शेषशायी प्रभु ने शीघ्र ही उनके विघ्न हरण का आश्वासन दिया। वराह स्वरूप में अवतार ग्रहण कर हिरण्याक्ष वध के उपरांत भूमि का शोधन कर उस पंक में से शुद्ध मृदा को एकत्र किया और अपने प्रदीप्त तीक्षण दृष्टों पर उस परिमार्जित शुद्ध मृदा स्वरूप भू को लेकर उस पंक से बाहर निकलने लगे। उसी क्षण वह भूदेवी भगवान वराह की स्तुति कर विनयपूर्वक निवदेन करने लगी- हे प्रभु! यह सकल ब्रह्मांड इस असुर के द्वारा हिरण्य प्राप्त करने में पंक से ओत-प्रोत हो चुका है। और आपका यह द्रष्ट ही मेरा आधार बना हुआ है किन्तु इसकी स्निग्ध एवम इसके शिखर का क्षेत्र अल्प होने से मुझे संशय है की यह कितने काल तक मेरा आश्रय स्थल होगा? भूदेवी के द्वारा इस प्रकार के दीन वचन सुनकर श्री वराह भगवान उन्हें आश्वस्त करते हुए कहने लगे - वह देवी! या मेरा द्रष्ट क्षण मातृ के लिए ही आपका आश्रय है, मैं अभी आपके लिए अन्य स्थल पर आश्रय प्रदान करुंगा। आप देखती रहो जहा वृक्षावली दिखे समझ लेना वही आपका मूल आश्रय स्थान है। भगवान वराह के इन वचनों को सुनकर भूदेवी बोली - हे प्रभु! समस्त वनस्पतियों का उद्गम वा आश्रय में हूं तो क्या मेरे अतिरिक्त भी कहीं वृक्ष आदि वनस्पति है? भगवान वराह कुछ उत्तर देते इससे पूर्व ही वह उस पंक से ऊपर निकल आए और जैसे ही स्वच्छ आकाश का दर्शन कर भूदेवी ने दृष्टि घुमाई, सुदूर प्रांत में उन सघन वृक्षावली का दर्शन हुआ और वह कहने लगी - हे प्रभु! यह कौन सा स्थान है? भूदेवी के इन वचनों को सुनकर श्री वराह भगवान कहने लगे - हे देवी! यह मेरा निवास स्थान, मथुरा मंडल, है जो चौरासी कोस विस्तार वाला ब्रज मंडल के नाम से जाना जाता है और अब यह आपका आधार भी होगा

अगर यह स्थान इस धरा का आश्रय है तो यह स्थान कब और कैसे निर्मित हुआ?

एक समय परब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण का गौलोक धाम से इतर किसी अन्य स्थान पर लीला विस्तार प्रयोजन के लिए गौलोक धाम के पूर्वी द्वार से चार अंगुल प्रमाण धराक्षेत्र के (आकाश गंगा में) स्थान से इस चौरासी कोस में विस्तृत मथुरा मंडल नाम वाली ब्रजभूमि का आविर्भाव हुआ। यह ब्रजभूमि गौलोक धाम का अंश होने के कारण परम पवित्र है। यह ब्रजभूमि अपने चौरासी कोस प्रमाण क्षेत्र में भगवान की कल्पना से सुरम्य वा अप्रतीम आकृति से अत्यंत मनोहारी है। 12 वन - 12 उपवन तथा अनेकों कुंज-निकुंज सरोवरों से सुशोभित यह ब्रजभूमि अपने आप में सृष्टि के अनेकों रहस्यो को छुपाये हुए हैं, जिन्हे जानने के लिए ब्रज दर्शन-ब्रज गमन-ब्रज वास होना परम आवश्यक है। क्योंकी यही वह स्थान है जहां सृष्टि का मूल तत्व निजस्वरूप में विग्रहवान होकर अधतन अपनी लीला के द्वारा यहां प्रत्यक्ष होते हुए भी अन्वेषण का विषय है -

सत्व स्वरूप कृष्ण तत्व!
रज स्वरूप राधा तत्व!
एवं
तम स्वरूप श्री तत्व!

समूल प्रत्यक्ष होते हुए भी परोक्ष है और परोक्ष होते हुए भी अहर्निश यहां गुंजायमान होती ध्वनि "श्री राधे कृष्णा" में प्रत्यक्ष अनुभूत है। इसी कारण जो विज्ञजन उस परम तत्व को समझ लेते हैं वह केवल और केवल एक ही वाक्य दोहराते है -


श्री राधे कृष्णा - श्री राधे कृष्णा!
श्री राधे कृष्णा रट रे!!!!